वह टैक्सी से उतरकर जल्दी-जल्दी जहाँगीर आर्ट गैलरी की ओर बढ़ गई, बाहर तेज
बारिश थी मगर विद्या अपना छाता नहीं खोलना चाहती थी। कुछ कदम की दूरी और देर
तक छाते की सीलन ढोते रहना उसे जरा भी पसंद नहीं था। जीवन भर उसने यही तो किया
है, कितने ही दुख आए परंतु आँखों में नमी न आने दी, नमी को ढोते रहना उसे कभी
रास न आया।
पति से विलग होकर इंदौर से मुंबई जैसे महानगर में आकर बसना, वो भी दो वर्ष के
अंशु के साथ विद्या के लिए ये सफर बड़ा मुश्किल भरा था। पति ने तो तलाक के कागज
भिजवा दिए थे। एक बार आकर समझाना भी उचित नहीं समझा था। कारण जाने बगैर सात
जन्मों के रिश्ते कभी यूँ भी दरक जाते हैं? और फिर विद्या की गलती तो बस
इतनी-सी थी की उसने अपने नाम का वजूद तलाश करना चाहा था। उसने भी तलाक के
कागजों पर हस्ताक्षर करके लौटती हुई डाक से वापिस भिजवा दिए थे जैसे उन कागजों
का वजन भी अब उसके सपनों के बर्दाश्त के बाहर था।
बचपन से ही उसमें कुछ कर गुजरने की ऐसी ललक थी कि विवाह के बाद वह कभी मात्र
गृहिणी बनकर सीमित नहीं रह सकी और उसके पति थे जो हमेशा से ही एक लीक से बँधी
जिंदगी चाहते रहे। शुरुआती कुछ दिनों में तो विद्या को भी हर शाम सज-सँवर कर
पति का इंतजार करना अच्छा लगता था। धीरे-धीरे उन गुडी-गुडी-सी चुहलबाजियों और
प्रेम के नुस्खों से उसका दम घुटने लगा था। प्रतिरोध करने की स्थिति में आती
उससे पहले ही कोख में एक जीव उसकी साँसों से साँसें मिलाकर पलने लगा था, जिसके
होने के अहसास से एक बार तो वह अपने सपनों को भी भूल गई थी। एक झंझावात था जो
फिर भी उसे घेरे रहता था। अंशु के जन्म के बाद शरीर तो जल्द ही अपने यथावत
आकार में लौट आया था परंतु मस्तिष्क को तो अब भी सिर्फ और सिर्फ चारदीवारी में
रहना मंजूर न था नतीजतन नोबत तलाक तक आ पहुँची थी। इसमें गलती शायद दोनों की
ही नहीं थी बस अपनी-अपनी प्राथमिकता का मसला था, यहाँ अहम नहीं वरन अपनी पहचान
ढूँढ़ने की कोशिश आड़े आ रही थी।
विद्या अक्सर बड़े भैया से सुनती थी कि मुंबई कलाकारों का मक्का है इसलिए दो
वर्ष के अंशु को लेकर अपना भाग्य आजमाने वह मुंबई चली आई थी। बड़े भैया का आसरा
रहा तब तक अंशु को उन्हीं के हवाले छोड़कर विद्या अपनी अधूरी छूटी पढ़ाई में
जुटी रही। एक रोज जर्नलिज्म के कोर्स के दौरान ही घर से फोन आया था कि अंशु को
स्कूल छोड़कर लौटते समय भैया का एक्सीडेंट हो गया। भैया का यूँ अचानक चले जाना
उसे अनाथ कर गया था। माँ-बाप के बिछुड़ने का गम पुनः उसे सालने लगा था।
बचपन में कई-कई बार विद्या घंटों तक अपनी हथेलियों में पसरी अनगिनत रेखाओं के
बीच स्थित किस्मत की रेखा को निहारती रहती थी। जब जवान हुई तो रेखाओं के
बीच-बीच में छूटे अधूरे सिरों को देखकर सोचा करती थी कि एक दूसरे से छिटके हुए
से ये सिरे उम्र के साथ-साथ जुड़ते चले जाएँगे और फिर इनके स्थान पर कुछ
परिपक्व रेखाएँ उभर आएँगी, मगर ऐसा कभी हुआ नहीं। समय और उम्र के साथ ये
रेखाएँ गाढ़ी जरूर होती गईं किंतु उनके सिरे एक-दूसरे से छिटके ही रहे।
जब तक बड़े भैया का हाथ सिर पर था विद्या भी निश्चिंत थी। अब तो भाभी के लिए
अपने परिवार का बोझ उठाना ही मुश्किल था। ऐसे में अंशु तो उनकी ननद की जिद का
परिणाम था, उसे वह क्यों सहन करती? भाभी तो विद्या के तलाक वाले निर्णय के
पक्ष में भी नहीं थी, फिर अब तो विद्या के भैया भी नहीं रहे थे इसलिए उन्होंने
अंशु के साथ ही विद्या से भी किनारा कर लिया था।
जीविका का प्रश्न तो तब भी उठा था जब विद्या के अहम ने पति से गुजारा-भत्ता
लेने से मना कर दिया था और अब भी वह प्रश्न जहाँ का तहाँ खड़ा था। शुक्र है कि
उसके कुछ छुटपुट आर्टिकल अखबारों में छपने लगे थे, जिससे गृहस्थी की एकपहिया
गाड़ी उबड़-खाबड़ ही सही, पर चलने तो लगी थी। उसकी कहानियों में असीम दर्द बह
निकला था जो उसकी अंतरात्मा से पसीजता था। जितनी जल्दी विद्या का कहानी-संग्रह
आया उतनी ही रफ्तार से वह नई-नई कहानियाँ लिखने लगी थी। पहले-पहल तो विद्या को
कहानी लिखना पेट भरने की एवज में अपने दुख को साझा करने जैसा लगा था।
धीरे-धीरे उसे भी एक अजीब-सा सुकून महसूस होने लगा था, जैसे किसी पके हुए फोड़े
के रिसाव के बाद की राहत से होता है। उपन्यासों में तो विद्या लोगों से इस
गहराई और अंतर्मन से जुड़ जाती थी कि विद्या की कसक को लोग अपनी निजी पीड़ा
समझने लगते थे।
अब तो उम्र की दोपहर हो चली है और सूरज ठीक सिर के ऊपर है ऐसे में परछाईं भी
साथ छोड़ देती है। दिन भर में क्या खोया क्या पाया, अगर इसका लेखा-जोखा करना हो
तो यही समय उपर्युक्त रहता है। बचपन के संगी-साथी जवानी तक ही साथ रहते हैं।
देह पर सिलवटें गिनने के लिए कितने रिश्ते बचे हैं इस बात का पता उम्र की
दोपहर आने तक चल ही जाता है। विद्या के पास अब एकमात्र अंशु का ही सहारा बचा
था मगर उसे क्या पता था कि उसकी किस्मत में अभी और दुख सहना बाकी है। कॉलेज की
पिकनिक पर खंडाला गया अंशु लौट कर कभी वापस घर नहीं आया। गहरी खाईं में बस के
परखच्चे उड़कर बिखर गए थे। अंतिम बार अंशु का चेहरा भी देखना विद्या को नसीब न
हुआ था। इनसान ने बड़े-बड़े अविष्कार कर लिए मगर अब तक न तो किसी मृत हुए दिल को
फिर से धड़कना सिखा सका और न ही मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सका है। किसी न किसी
दिन सभी को इस क्रूर सत्य से गुजरना ही पड़ता है, सो विद्या की क्या बिसात जो
प्रकृति से सवाल-जवाब कर पाती।
और आज यही तो जहाँगीर आर्ट गैलरी के इस कैनवास में दर्शाया गया है जिसमें एक
व्यक्ति सन 2014 को इंगित कर रहा है। उम्र को मात देती एक टाइम मशीन 2014 से
घूमती हुई सन 2114 तक जा रही है। विद्या बुदबुदा उठी "इतना कौन जी पाता है?"
पास ही खड़ी उस जींस-टॉप वाली लड़की ने अपनी जींस को एडजस्ट करते हुए विद्या की
सिल्क साड़ी और गले में पड़े सफेद मोतियों की माला को यूँ देखा जैसे वह विद्या
की उम्र मापने का कोई पैमाना हो। वह लड़की मंद-मंद मुस्कुरा उठी।
अगले कैनवास में एक महिला थी जिसका मुँह दीवार की ओर व उसकी नंगी पीठ विद्या
की ओर थी, जिस पर कई जगह काले रंग से मोटे-मोटे थक्के से बने हुए थे।
प्राइस-टेग पर लिखा था" रु. 25000 मात्र, द्वारा - नीता देव"। हाँ, ऐसी
कलाकृति एक औरत ही बना सकती है, विद्या बोली। जींस-टॉप वाली लड़की ने पूछा
क्यों? देखो न पीठ पर कितने गहरे घाव हैं जो समाज से औरतों को मिलते हैं। कोई
पुरुष भला कैसे अहसास करेगा इस तकलीफ को? विद्या अपनी ही रौ में कह गई। विद्या
से सहमत होती हुई वह लड़की सिर्फ सिर हिला कर रह गई और अब दो अनजान महिलाएँ
अपने नारीत्व के परिचय-सूत्र से आपस में बँधने लगीं।
अगले चित्र में एक सेब आसमान में रस्सी से बँधा हुआ रखा था जिसकी एक फाँक कट
कर जमीन पर पडी थी परंतु इस अलग-थलग पड़ी सेब की इस फाँक से बँधी रस्सी का छोर
अब भी आसमान वाले सेब से जुड़ा हुआ था। कुछ ही दूर फर्श पर एक औरत नग्न अवस्था
में जमीन पर औंधी लेटी हुई थी। विद्या सेब की ओर इशारा करके बोल पड़ी - "जानती
हो यह एडम्स एपल है?" बस यही तो सबसे बड़ा गुनाह कर दिया था ईव ने और सजा पाई
पूरे संसार की ईव्स ने। जींस-टॉप वाली लड़की सोच में पड़ गई, फिर बोली "मेरा नाम
श्रुति है और आप विद्या जी हैं न? द फेमस रायटर?" किंतु विद्या चुप ही रही और
वे दोनों साथ-साथ आगे बढ़ गई। उसी से सटे अगले स्केच में दो कम उम्र की औरतें
चोपड़ खेल रही थीं, स्केच पर लिखा था रिलैक्स्ड एलीफैंट।
श्रुति बोली - "अब इसे कैसे डिस्क्राइब करेंगीं आप?"
विद्या बोली - "ये दोनों कुलीन समाज की स्त्रियाँ हैं, जिनके पास ढेर-सा खाली
वक्त है और ये रिलैक्स्ड एलिफेंट के रूप में वे पुरुष हैं जो अपनी आरामगाह में
इन स्त्रियों को पत्नी का दर्जा देकर खुद कभी गोवा, कभी थाईलैंड, कभी
एम्सटर्डम, दुबई और कभी हांगकांग..." विद्या कुछ देर चुप हो गई तो श्रुति की
आँखें हैरानी से चौड़ी होती चली गईं।
एक बहुत ऊँचा कैनवास लगा था जिसका शीर्षक था "पार्लर" उसमें सोलह बॉक्स बने
थे। और हर बॉक्स में लिखा था मजा... मजा... मजा... मजा... उसी के ठीक नीचे दो
व्यक्ति आपस में जाम टकरा कर हँस रहे थे। जिनमें से एक व्यक्ति के सिर पर
क्रोशिए से बुनी मुस्लिम टोपी थी और दूसरे व्यक्ति के सफाचट सिर पर चोटी थी।
श्रुति की परेशानी दूर करने की एवज में, विद्या बोली "यह दुनिया की आधे से
अधिक आबादी का हाल है"।
श्रुति ने कहा अच्छा..." मगर सोलह बार ही 'मजा... मजा... मजा... मजा...' से
क्या तात्पर्य?"
प्रत्युत्तर में विद्या ने कहा "क्योंकि सोलह की उम्र में जो मजा शुरू होता है
तो अगले सोलह वर्ष तक पार्लर में ये जोड़ी जुगलबंदी करती है फिर छत्तीस की उम्र
तक तो जवानी का खुमार उतरते-उतरते ये लोग धर्म की किताबें पढ़ने लगते हैं। उसके
बाद मजा खत्म... श्रुति शरारत से बोली "यानीकि सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को
चली?" और वे दोनों ठहाका मारकर हँस पड़ी। गैलरी में उपस्थित अन्य लोग उन्हें
घूर कर देखने लगे, विद्या ने कोने में लगे नोटिस बोर्ड की और इशारा किया जिस
पर लिखा था "साइलेंस प्लीज"।
वे दोनों धीरे-धीरे चलती हुई गैलरी के बीचों-बीच रखे सोफे पर आकर बैठ गई और
बड़ी देर तक मुँह दबाकर हँसती रही।
"क्या आप 'जहाँगीर आर्ट गैलरी' अक्सर आती हैं?" श्रुति फुसफुसाई।
विद्या बोली "हाँ जब भी कोई नई प्रदर्शनी लगती है या मुंबई की बरसात में कहीं
जाने का मन करे और जाने को कोई ठौर न हो तो मैं यहीं दौड़ पड़ती हूँ, यहाँ हर
कलाकृति मुझसे बात करती है और मैं अपने आप से।
श्रुति उत्साहित होते हुए बोली, अच्छा! मैं तो धन्य हो गई आपसे मिलकर, आज तो
मैं भगवान से कुछ और माँगती तो वह भी मुझे मिल जाता श्रुति मचलती हुई सी बोली
चलिए और पेंटिंग देखते हैं।
देखिए इसमें तो कलाकार की अजीब-सी सोच है। पूरा धड़ मनुष्य का और दिमाग के
स्थान पर काँच का जार लगा है, जिसमें कीड़े कुलबुला रहे हैं और जार के ऊपर दो
कौए बैठे हैं जो उन कीड़ों को पकड़ना चाहते हैं, अब इसे कैसे परिभाषित करेंगी
आप?
विद्या को भी यह चित्र कुछ भयावह लगा, वह बोली "देखो ये विचारों के कीड़े है,
इनमें से कुछ अच्छे हैं तो कुछ बुरे। जो अच्छे विचारों वाले कीड़े हैं उन पर इन
कौओं की नजर है। ये कौए प्रतीक है, उन परजीवी और मौकापरस्त लोगों के, जो
दूसरों के विचारों पर जीते हैं।"
ओह! आप कितना गहराई से सोचती हैं। श्रुति ने एक गहरी साँस छोड़ते हुए कहा।
पास ही एक कोरा कैनवास लगा था जैसे कि कोई उसे बनाना भूल गया हो, नजदीक जाकर
देखा तो उस पर नीचे से ऊपर की ओर समान दूरी पर कुछ नीले-नीले बुलबुले हवा
छोड़ते हुए बने हुए थे उनसे निकलने वाले हवा के बुलबुले ऊपर की ओर जा रहे थे।
विद्या ने सिलसिलेवार हर एक बुलबुले पर हाथ रखते हुए एक ठंडी लंबी साँस छोड़ते
हुए कहा, इंदौर... त... लाक... बड़े-भैया... मुंब... ई... अं... शु
परंतु अंतिम बुलबुला क्यों नहीं फूटा? क्या यह मैं हूँ? हाँ शायद यह मैं ही
हूँ। इस पेंटिंग के बारे में श्रुति ने कुछ नहीं पूछा। वह कुछ असमजंस में थी
या फिर अब बोर होने लगी थी।
आगे की दीर्घा में "एब्सट्रैक्ट आर्ट" था। विद्या को एब्सट्रैक्ट ज्यादा
प्रभावित नहीं करता मगर श्रुति चहक उठी। "देखिए यह जो थूहरनुमा चीज हैं न? यही
जिंदगी है और यह हरा रंग जो 'क्लोरोफिल' की तरह प्रयोग किया गया है, ये जीवन
रस है और जो ये छिद्र है कुछ बड़े कुछ छोटे-छोटे से... ये हैं जीवन के सुख-दुख।
इनके बीच-बीच में जो गुलाबी रंग के छीटें हैं न? ये हैं रिश्ते जो भिन्न-भिन्न
आकार-प्रकार से व परिस्थितिनुसार पनपते रहते हैं।
अब विद्या के चुप रहने की बारी थी। श्रुति ने विद्या को लगभग ठेलते हुए कहा -
चलिए, वहाँ कुछ इंट्रेस्टिंग है। क्या आप जानती हैं? ये पेन पेंटिंग है... ये
एचिंग पेंटिंग है... और ये है मेरा पसंदीदा बाटिक... सब कुछ कितना शानदार है,
है न? अहा जीवन के रंगों से भरपूर... कुछ-कुछ रहस्यमई-सा, कुछ खुला तो कुछ
छिपाया हुआ-सा... कहते-कहते श्रुति जैसे किसी कल्पना लोक में विचरण करने लगी
थी। दीवार के बीचों-बीच टँगी पेंटिंग को देखकर वह उत्साह से बोली - "यह जो शेर
के मुँह और मानव के धड़ वाला व्यक्ति है न, यह मेरा बॉयफ्रेंड है रोबिन और जो
ये पाँच पुरुष इसके साथ खड़े हैं, वे हैं स्या... ले, मेरे 'एक्स
बॉय-फ्रेंड..." फिर विद्या की हैरानी दूर करते हुए बोली - रोबिन वही जिसके साथ
मैं 'लिव-इन-रिलेशन' में हूँ दो साल से, अभी पिक-अप करने आएगा तब आपको मिलवा
दूँगी।
देखिए वहाँ "काऊ-डंग" पर पेंटिंग है। विद्या ने गौर किया वाकई ये नई जनरेशन
कुछ नया सोचती है। हर उपले पर कार्ड-बोर्ड लगा था, जिस पर चाइना से आयातित
उत्पादों के चित्रों को दर्शाया गया था। विद्या बोली - मगर "इन उपलों को कौन
अपने ड्राइंग रूम में सजाएगा?" फिर उपले तो कुछ दिन में सड़ जाएँगे। श्रुति ने
पलकों में एक उलहाना भरकर विद्या की सिल्क साड़ी और गले में पड़े मोतियों की
माला को हैरत से देखा जैसा कि उसने पहली बार मिलने पर देखा था। वह बोली "उपला?
यू मीन काऊ-डंग...?"
विद्या के पैर अब थककर जवाब देने लगे थे। प्रथम दीर्घा में विद्या उत्साहित थी
मगर अब श्रुति की बारी थी। वह बोली - "चलिए न, सिर्फ अंतिम पेंटिंग ही तो बची
है, उसे भी निबटा लें।"
वे दोनों उस अंतिम कलाकृति के ठीक सामने जाकर खड़ी हो गईं। जरा गौर करने पर उस
स्केच में दो आकृतियाँ उभर रहीं थी। श्रुति के सामने वाली आकृति के कंधे
मजबूत, वक्ष सुडौल व ऊँचाई पर कसाव लिए हुए थे। पतली कमर में नाभि छिद्र अंदर
तक मजबूती से कसा हुआ था। श्रुति ने इशारा किया "पेड़ू से नीचे की तरफ देखो यह
अँग्रेजी के "वी" अक्षर पर कैसी गहरी काली आड़ी-तिरछी रेखाएँ छितरी पड़ी हैं?
जैसे किसी उन्हें बड़ी लापरवाही से खींच दिया हो।"
विद्या के ठीक सामने वाली आकृति के कंधे ढले हुए थे, लटकते वक्षों की गुठलियों
पर सिकुड़न भरी खरोंचों के पीले पड़े निशान थे, जरा ऊपर ही स्याह घेरों के
बीचो-बीच गाढ़े भूरे रंग में भद्दे आकार के दो थक्के लटक रहे थे। कमर की त्वचा
दुहरी होकर सिलवटों में पेट के अग्र भाग व नाभि छिद्र को छुपाए हुए थी। विद्या
ने इस चित्र के नीचे की तरफ गौर किया ...अँग्रेजी के "वी नुमा" अक्षर के ऊपर
धुँधली काली-सफेद रंग की मोटी-मोटी रेखाएँ खींची दी गई थीं। इस अंतिम कैनवास
के प्राइस-टैग ने दोनों को ही एक साथ आकर्षित किया, जिस पर लिखा था "द्वारा -
मानव और कीमत के सामने लिखा था - एक उम्र मात्र..."
विद्या ने घबराकर श्रुति की तरफ देखा, वह अपना अस्त-व्यस्त हुआ टॉप एडजस्ट कर
रही थी। उसके माथे पर विद्या की ही तरह पसीने की बूँदें तमतमा आईं थीं। विद्या
ने कहा - बाहर अब भी तेज बारिश हो रही है, चलो - तुम्हें कॉफी पिलाती हूँ और
वे दोनों हाथ पकड़ कर जहाँगीर आर्ट गैलरी के भीतर ही बने कैफेटेरिया में आ गईं।